शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

ये कहाँ आ गए हम ?

            ये  कहाँ आ गए हम ?
“फ़रिश्ता बनने की  चाहत न करें तो बेहतर है , इन्सान हैं  इन्सान ही बन जाये यही क्या कम है  !”

तारीख़ :   25 अगस्त 2016
स्थान   :   ओड़िशा के कालाहांडी जिले का सरकारी अस्पताल
अमंग देवी  टी बी के इलाज के दौरान जीवन से अपनी जंग हार जाती हैं । चूँकि वे एक आदिवासी, नाम , दाना माँझी ' की पत्नी हैं  , एक गुमनाम मौत उन्हें गले लगाती है।

 लेकिन हमारी सभ्यता की खोखली तरक्की  , राज्य सरकारों की कागज़ी योजनाओं ,पढ़े लिखे सफेदपोशों से भरे समाज की पोल खोलती  इस देश में मानवता के पतन की कहानी कहती एक तस्वीर ने उस गुमनाम मौत को अखबारों और न्यूज़ चैनलों की सुर्खियाँ बना दिया 
जो जज्बात एक  इंसान की मौत नहीं जगा पाई वो जज्बात एक तस्वीर जगा गई। पूरे देश में हर अखबार में  हर चैनल में  सोशल मीडिया की हर दूसरी पोस्ट में अमंग देवी को अपनी मौत के बाद जगह मिली लेकिन उनके मृत शरीर को एम्बुलेंस में जगह नहीं मिल पाई ।
पैसे न होने के कारण तमाम मिन्नतों के बावजूद जब अस्पताल प्रबंधन ने शव वाहिका उपलब्ध कराने में असमर्थता जताई तो लाचार दाना माँझी ने अपनी पत्नी के मृत शरीर को कन्धे पर लाद कर अपनी 12 वर्ष की रोती हुई बेटी के साथ वहाँ से 60 कि. मी. दूर अपने गाँव मेलघारा तक पैदल ही चलना शुरू कर दिया और करीब 10 कि.मी. तक चलने के बाद कुछ स्थानीय लोगों के हस्तक्षेप से और खबर मीडिया में आ जाने के बाद उन्हें  एक एम्बुलेंस नसीब हुई।
पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर जिला कलेक्टर का कहना था कि माँझी ने वाहन का इंतजार ही नहीं किया। वहीं ' द टेलीग्राफ ' का कहना है कि एक नई एम्बुलेंस अस्पताल में ही खड़ी होने के बावजूद सिर्फ इसलिए नहीं दी गई क्योंकि किसी ' वी आई पी ' के द्वारा उसका उद्घाटन नहीं हुआ था।इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि ऐसी ही स्थितियों के लिए नवीन पटनायक की सरकार द्वारा फरवरी माह में  'महापरायण ' योजना की शुरुआत की गई थी  । इस योजना के तहत शव को सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त में परिवहन सुविधा दी जाती है।बावजूद इसके एक गरीब पति ' पैसे के अभाव में ' अपनी पत्नी के शव को 60 कि . मी. तक पैदल ले जाने के लिए मजबूर है 
  अगर परिस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि बात दाना माँझी के पास धन के अभाव की नहीं है बल्कि बात उस अस्पताल प्रबंधन के पास मानवीय संवेदनाओं एवं मूल्यों के अभाव की है  । बात  एक गरीब आदिवासी की नहीं है बात उस तथाकथित सभ्य समाज की है जिसमें एक बेजान एम्बुलेंस को किसी वी आई पी के इंतजार में खड़ा रखना अधिक महत्वपूर्ण लगता है बनिस्पत किसी जरूरतमंद के उपयोग में लाने के।बात उस संस्कृति के ह्रास की है जिस संस्कृति ने भक्त के प्रबल प्रेम के वश में प्रभु को नियम बदलते देखा है, लेकिन उस देश में सरकारी अफसर किसी मनुष्य के कष्ट में भी नियम नहीं बदल पाते । यह कैसा विकास है जिसके बोझ तले इंसानियत मर रही है जो सरकारें अपने आप को गरीबी हटाने और गरीबों के हक के लिए काम करने का दावा करती हैं उन्हीं के शासन में उनके अफसरों द्वारा अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है।
किसी की  आँख का आंसू 

मेरी आँखों में आ छलके;
किसी की साँस थमते देख
मेरा दिल चले   थम  के;
किसी के जख्म की टीसों पे ;
मेरी रूह तड़प जाये;
किसी के पैर के छालों से
मेरी आह निकल जाये;
प्रभु ऐसे  ही भावो से मेरे इस दिल को तुम भर दो;
मैं कतरा हूँ मुझे  इंसानियत का दरिया तुम कर दो.
किसी का खून बहता देख
मेरा खून जम जाये;
किसी की चीख पर मेरे
कदम उस ओर बढ़ जाये;
किसी को देख कर भूखा
निवाला न निगल पाऊँ;
किसी मजबूर के हाथों की
मैं लाठी ही बन जाऊं;
प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो;
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत का दरिया तुम कर दो  ( डॉ  शिखा कौशिक)
बात हमारे देश के एक पिछड़े राज्य ओड़िशा के एक आदीवासी जिले की अथवा सरकार या उसके कर्मचारियों की नहीं है बात तो पूरे देश की है हमारे समाज की है हम सभी की है 
16 अगस्त 2016  : भारत की राजधानी दिल्ली 

एक व्यस्त बाजार  , दिन के समय एक युवक सड़क से पैदल जा रहा था और वह अपनी सही लेन में था। पीछे से आने वाले एक लोडिंग औटो की टक्कर से वह युवक गिर जाता है, औटा वाला रुकता है  औटो से बाहर निकल कर अपने औटो को टूट फूट के लिए चेक करके बिना एक बार भी उसकी टक्कर से घायल व्यक्ति को देखे निकल जाता है  । सी सी टीवी फुटेज अत्यंत निराशाजनक है क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक पल रुक घायल की मदद करने के बजाय उसे देखकर सीधे आगे निकलते जाते हैं।
कहाँ जा रहे हैं सब ? कहाँ जाना है ? किस दौड़ में  हिस्सा  ले रहे हैं  ? क्या जीतना चाहते हैं सब ? क्यों एक पल ठहरते नहीं हैं  ? क्यों जरा रुक कर एक दूसरे की तरफ प्यार से देखने का समय नहीं है, क्यों एक दूसरे की परवाह नहीं कर पाते  ,क्यों एक दूसरे के दुख दर्द के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते , क्यों दूर से देख कर दर्द महसूस नहीं कर पाते ? क्यों हम इतने कठोर हो गए हैं कि हमें केवल अपनी चोट  ही तकलीफ देती है  ? क्या हम सभी भावनाशून्य मशीनों में तो तब्दील नहीं हो रहे ?

विकास और तरक्की की अंधी दौड़ में हम समय से आगे निकलने की चाह में मानव भी नहीं रह पाए  । बुद्धि का इतना विकास हो गया कि भावनाएं पीछे रह गईं । भावनाएं ही तो मानव को पशु से भिन्न करती हैं  । जिस विकास और तरक्की की दौड़ में मानवता पीछे छूट जाए , भावनाएँ मृतप्राय हो जांए ,मानव पशु समान भावना शून्य हो जाए उस विकास पर हम सभी को आत्ममंथन करने का समय आ गया है 
डॉ नीलम महेंद्र 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

नर-नारी द्वंद्व व संतुलन, समस्यायें व कठिनाइयाँ... डा श्याम गुप्त...

                       *** नर-नारी द्वंद्व व संतुलन, समस्यायें व कठिनाइयाँ.. ***

----समस्यायें व कठिनाइयाँ सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान हैं, चाहे युद्ध हो, प्रेम हो, आतंरिक राजनीति या सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या व्यवसायिक द्वंद्व हों या व्यक्तिगत कठिनाइयां |

-------- वैदिक-पौराणिक युग में तात्कालीन सामजिक स्थितियों, ब्राह्मणों, ऋषि व मुनियों के तप बल एवं राजाओं के शक्ति बल एवं स्त्री-लोलुपता के मध्य स्त्रियों की दशा पर पौराणिक कथाओं (सुकन्या का च्यवन से मज़बूरी अथवा नारी सुकोमल भाव या मानवीय –सामाजिक कर्त्तव्य भाव में विवाह करना, नहुष का इन्द्रणी पर आसक्त होना, कच-देवयानी प्रकरण, ययाति-शर्मिष्ठा प्रकरण आदि ) में देवी सुकन्या( राजा शर्याति की पुत्री, महर्षि च्यवन की पत्नी ) विचार करती हैं कि नर-नारी के बीच सन्तुलन कैसे लाया जाए तो अनायास ही कह उठती हैं कि यह सृष्टि, वास्तव में पुरुष की रचना है। इसीलिए, रचयिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व-हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु पुरुषों की रचना यदि नारियाँ करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रणव एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।

--------इस पर आयु, उर्वशी-पुरुरवा पुत्र, यह दावा करता है कि मैं वह पुरुष हूँ जिसका निर्माण नारियों ने किया है। { पुरुरवा स्वयं इला, जो इल व इला नाम से पुरुष व स्त्री दोनों रूप था, का बुध से पुत्र था, एल कहलाता था| अतः आयु स्वयं को नारियों द्वारा निर्मित कहता था ..}

-------आयु का कहना ठीक था, वह प्रसिद्ध वैदिक राजा हुआ, किन्तु युवक नागराजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।

------- देवी सुकन्या सोचती हैं कि फिर वही बात ! पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।-

----------आज नारी के उत्थान के युग में हमें सोचना चाहिए कि अति सर्वत्र वर्ज्ययेत ....जोश व भावों के अतिरेक में बह कर हमें आज नारियों की अति-स्वाधीनता को अनर्गल निरंकुशता की और नहीं बढ़ने देना चाहिए | चित्रपट, कला, साहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र की बहुत सी पाश्चात्य-मुखापेक्षी नारियों बढ़-चढ़ कर, अति-स्वाभिमानी, अतिरेकता, अतिरंजिता पूर्ण रवैये पर एवं तत्प्रभावित कुछ पुरुषों के रवैये पर भी समुचित विचार करना होगा |

---------अतिरंजिता पूर्ण स्वच्छंदता का दुष्परिणाम सामने है ...समाज में स्त्री-पुरुष स्वच्छंदता, वैचारिक शून्यता, अति-भौतिकता, द्वंद्व, अत्यधिक कमाने के लिए चूहा-दौड़, बढ़ती हुई अश्लीलता ...के परिणामी तत्व---अमर्यादाशील पुरुष, संतति, जो हम प्रतिदिन समाचारों में देखते रहते हैं...यौन अपराध, नहीं कम हुआ अपराधों का ग्राफ, आदि |

""क्यों नर एसा होगया यह भी तो तू सोच ,
क्यों है एसी होगयी उसकी गर्हित सोच |
उसकी गर्हित सोच, भटक क्यों गया दिशा से |
पुरुष सीखता राह, सखी, भगिनी, माता से |
नारी विविध लालसाओं में खुद भटकी यों |
मिलकर सोचें आज होगया एसा नर क्यों |""

------समुचित तथ्य वही है जो सनातन सामजिक व्यवस्था में वर्णित है, स्त्री-पुरुष एक रथ के दो पहियों के अनुसार संतति पालन करें व समाज को धारण करें ------ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र (१०-१९१-२/४) में क्या सुन्दर कथन है---
"" समानी व अकूतिःसमाना ह्रदयानि वः ।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामतिः ॥"""--- अर्थात हम ह्रदय से समानता ग्रहण करें...हमारे मन समान हों, हम आपसी सहमति से कार्य संपन्न करें |...

----पुरुष की सहयोगी शक्ति-भगिनी, मित्र, पुत्री, सखी, पत्नी, माता के रूप में सत्य ही स्नेह, संवेदनाओं एवं पवित्र भावनाओं को सींचने में युक्त नारी, पुरुष व संतति के निर्माण व विकास की एवं समाज के सृजन, अभिवर्धन व श्रेष्ठ व्यक्तित्व निर्माण की धुरी है।

-----अतः आज की विषम स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे।

-----हम स्त्री विमर्श, पुरुष विमर्श, स्त्री या पुरुष प्रधान समाज़ नहीं, मानव प्रधान समाज़, मानव-मानव विमर्श की बात करें। बराबरी की नहीं, युक्त-युक्त उपयुक्तता के आदर की बात हो तो बात बने।