शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

नई सदी में नारी........ डा श्याम गुप्त ..


             
                    पश्चिमी जगत के पुरुष विरोधी रूप से उभरा नारी मुक्ति संघर्ष आज व्यापक मूल्यों के पक्षधर के रूप में अग्रसर हो रहा है । यह मानव समाज के उज्जवल भविष्य का संकेत है। बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का । इक्कीसवी सदी क़ा यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण क़ा काल है। आज सिर्फ पश्चिम में ही नहीं वरन विश्व के पिछड़े देशों में भी नारी घर से बाहर खुली हवा में सांस लेरही है, एवं जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों से भी दो कदम आगे बढ़ा चुकी है। अब वह शीघ्र ही अतीत के उस गौरवशाली पद पर पहुँच कर ही दम लेगी जहां नारी के मनुष्य में देवत्व व धरती पर स्वर्ग की सृजिका तथा सांस्कृतिक चेतना की संबाहिका होने के कारण समाज 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ' क़ा मूल मन्त्र गुनुगुनाने को बाध्य हुआ था ।
            
नारी की आत्म विस्मृतिदैन्यता  पराधीनता के कारणों में विभिन्न सामाजिक मान्यताएं व विशिष्ट परिस्थितियाँ रहीं हैं, जो देश, काल व समाज के अनुसार भिन्न भिन्न हैं। पश्चिम के दर्शन  संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन, शैतान की कृति, पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं, यह भी विवाद क़ा विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है।
                 
पश्चिम के विपरीत भारतीय संस्कृति  दर्शन में नारी क़ा सदैव गौरवपूर्ण व पुरुष से श्रेष्ठतर स्थान रहा है। 'अर्धनारीश्वर ' की कल्पना अन्यंत्र कहाँ है। भारतीय दर्शन में सृष्टि क़ा मूल कारण  अखंड मातृसत्ता - अदिति भी नारी है। वेद माता गायत्री है। प्राचीन काल में स्त्री ऋषिका भी थी, पुरोहित भी | वह गृह-स्वामिनी, अर्धांगिनी, श्री, समृद्धि आदि रूपों से सुशोभित थी। कोई  भी पूजा, यज्ञ, अनुष्ठान उसके बिना पूरा नहीं होता था। ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है--
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी  ममेदनु क्रतुपतिसेहनाया उपाचरेत  "---ऋग्वेद -१०/१५९/२..   अर्थात-मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ) तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों क़ा मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं । 
हाँ, मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी।
                                   
नई सदी में नारी को समाज की नियंता बनने के लिए किसी से अधिकार माँगने की आवश्यकता नहीं है,वरन् उसे अर्जित करने की है। आरक्षण की वैशाखियों पर अधिक दूर तक कौन जासका है । परिश्रम से अर्जित अधिकार ही स्थायी संपत्ति हो सकते हैं। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों क़ा बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता, वात्सल्य, उदारता, धैर्य, लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी, पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां कामायनी ' क़ा रचनाकार " नारी तुम केवल श्रृद्धा हो" से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-"....स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ :" उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋ.८/३३/१६ )।
                
नारी मुक्ति व सशक्तीकरण क़ा यह मार्ग भटकाव  मृगमरीचिका से भी मुक्त नहीं है। नारी-विवेक की सीमाएं तोड़ने पर सारा मानव समाज खतरे में पड़ सक़ता है। भौतिकता प्रधान युग में सौन्दर्य की परिभाषा सिर्फ शरीर तक ही सिमट जाती है। नारी मुक्ति के नाम पर उसकी जड़ों में कुठाराघात करने की भूमिका में मुक्त बाज़ार व्यवस्था व पुरुषों के अपने स्वार्थ हैं । परन्तु नारी की समझौते वाली भूमिका के बिना यह संभव नहीं है। अपने को 'बोल्ड' एवं आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में, अधिकाधिक उत्तेज़क रूप में प्रस्तुत करने की धारणा न तो शास्त्रीय ही है और न भारतीय । आज नारी गरिमा के इस घातक प्रचलन क़ा प्रभाव तथाकथित प्रगतिशील समाज में तो है ही, ग्रामीण समाज व कस्बे भी इसी हवा में हिलते नज़र आ रहे हैं। नई पीढी दिग्भ्रमित व असुरक्षित है। युवतियों के आदर्श वालीवुड व हालीवुड की अभिनेत्रियाँ हैं। सीता, मदालसा, अपाला, लक्ष्मी बाई, ज़ोन ऑफ़ आर्क के आदर्श व उनको जानना पिछड़ेपन की निशानी है।
               
इस स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर, भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों, करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुख-दर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक, सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन क़ा मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में सशक्त होकर नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी ।


10 टिप्‍पणियां:

अशोक कुमार शुक्ला ने कहा…

Eak shodhpurn aalekh.
Badhi.

रविकर ने कहा…

अर्पित चरणों में करूँ , दो दोहे श्रीमान |
माता के सम्मान में, मैं अबोध इंसान ||

नारीवादी हस्तियाँ, होती क्यूँ नाराज |
गृह-प्रबंधन इक कला, ताके पुन: समाज ||

करे कमाई लाख मर्द, बड़े प्रबंधन-काज |
घर रहता नारी बिना, डूबा हुआ जहाज ||

Atul Shrivastava ने कहा…

सुंदर पोस्‍ट।

प्रेम सरोवर ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

सारगर्भित आलेख है।

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद ..अशोक जी , अतुल , प्रेम के सरोवर जी..व रविकर... वास्तव में स्त्री-पुरुष समन्वय ही सभ्यता की रीढ़ है ...

डा श्याम गुप्त ने कहा…

--धन्यवाद ..अजित गुप्ता जी ..आपकी टिप्पणी निश्चय ही विशेष महत्त्व रखती है ...आभार..

डा श्याम गुप्त ने कहा…

--वाह ..वाह ...रविकर जी....आप तो दोहों में सिद्धहस्त होते जारहे हैं ..अति-सुंदर दोहे....बधाई ..
--करे कमाई लाख मर्द = १४ मात्रा ..एक अधिक है ....

रविकर ने कहा…

आभार सहित, संशोधित दोहा
श्री-चरणों में प्रस्तुत है--

मर्द कमाए लाख पण, करे प्रबंधन-काज |

घर लागे नारी बिना, डूबा हुआ जहाज ||

डा श्याम गुप्त ने कहा…

क्या बात है ....